मन की एकाग्रता को इस ज्ञान से जोड़कर ध्यान से इसका सिमरन करना है, भक्ति में आगे बढ़ना है तो अपने आपको नम्र - सहज बनाना होगा, संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में महात्मा रिया वतनानी जी ने विचार व्यक्त किए
कटनी ( मुरली पृथ्यानी ) ज्ञान तो सतगुरु ने सहज रूप में दे दिया, पर ज्ञान लेने के बाद ध्यान का मेरा टिकना, कि वह ध्यान सतगुरु के चरण शरण में टिक पाए। हर समय इस संसार में उस प्रभु परमात्मा के दर्शन कर पाएं। उस एहसास को हर समय महसूस कर पाए जो सतगुरु अपने ज्ञान द्वारा दिखा रहे हैं, समझा रहे हैं, तभी मेरा मानव जन्म श्रेष्ठ बन पाएगा, सार्थक बन पाएगा। कि कहीं वह बात तो नहीं कि दूध में खटाई का मिलना, कि मेरे द्वारा सेवा, सिमरन और सत्संग तो हो ही रहे हैं। पर मन में कहीं ना कहीं उस अहम भाव का आना, कहीं ना कहीं वह संतों के लिए अपमान वाली बात, कहीं ना कहीं किसी को छोटा दिखाने का ध्यान तो नहीं, मन की एकाग्रता को इस ज्ञान से जोड़कर ध्यान से इसका सिमरन करना है। इसको हर पल महसूस करना है मन की एकाग्रता हम सभी की झोली में आए, कि ज्ञान दिया है, ध्यान भी देना। इस सतगुरु से हर पल यह अरदास रहे, यह मांग रहे, कि अलग-अलग है रुचि साधो, अलग-अलग है सोच विचार। पर फिर भी इस परमात्मा ने हम सभी पर दया की है कि वह ज्ञान की दात समान रूप में दे दी, अपने दर्शन दे दिए। कहा भी जाता है, हर समय इस प्रभु की बंदगी ही मेरा जीवन बन जाए, हर समय इसका एहसास ही मेरा जीवन बन जाए, कि मैं उठते-बैठते इस प्रभु के दर्शन दीदार करता रहूं। हर समय संतों का सत्कार मेरे जीवन में बना रहे। कभी भी ऊंच नीच वाली वह भावना नहीं, कभी भी किसी को तेरे मेरे का भाव नहीं। कहा जाता है कि रावण ने भगवान शिव की भक्ति करके अनेक ऊंचाइयों को भक्ति में प्राप्त किया था, अपने घर से स्वर्गलोक तक उसे सीढ़ी दी गई थी। पर उसे अहम था, अहंकार था कि मैं तो जो चाहे कर सकता हूं। तभी भगवान श्री राम को नहीं पहचान पाए और युद्ध के लिए अपने आप को वहां शामिल कर दिया। हम सभी जानते हैं, आज सद्गुरु माता जी हम सभी पर उपकार कर रहे हैं, कि मैं इस अहंकार को छोड़ पाऊं। इसीलिए मुझे रोज सेवा, सिमरन और सत्संग के माध्यम से, संतों के संग के माध्यम से सिखाया जा रहा है, बताया जा रहा है कि तू इस अहंकार को छोड़ दे, क्योंकि जीवन में अहंकार का कोई महत्व नहीं। आज अगर मुझे कुछ मिला है, तो गुरु की कृपा कहते हैं। उन घड़ियों को मुबारक मानो, उस पल को मुबारक मानो, उस जगह को मुबारक मानो जहां बैठकर गुरु की चर्चा की जाती है, हरि का यश गाया जाता है, प्रभु ने ऐसे संतों का मेला रोज ही झोली में डाला है। तो इसकी कदर कर पाए, इसे समझ पाए, मेरे जीवन में इसकी अहमियत क्या है। जरा खटाई पड़ने से ही दूध जो फट जाता है। व्यर्थ हो जाती है सेवा, अहंकार जब आता है, सेवा में गवाना खुद को हरगिज़ न गिनवाना है। तन्मयता से, अनुशासन से सेवा करते जाना है। वो चेतनता, वो मुझे सहज स्वभाव से सेवा करनी है। उक्त विचार संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में रविवार के सत्संग कार्यक्रम में पवित्र हरदेव वाणी के शब्द पर महात्मा रिया वतनानी जी ने उपस्थित साध संगत के समक्ष व्यक्त किए।
सतगुरु माता जी का शुक्राना और सारे ही संगत मां का शुक्राना कि दासी को आशीर्वाद रूप में यह श्रद्धा और विश्वास से भरी नजरें, वो खुशी का पल जो आशीर्वाद के रूप में मिले हैं। दासी को महसूस हो रहा था कि आज शायद मेरा दामन भी छोटा हो जाएगा, इतनी खुशियां, इतनी रहमतें, इतनी बख्शीशें संतों की कि दामन में समा भी नहीं पाते इसीलिए इसे खुशियों का दर कहा गया। आज 28 सितंबर, सभी साध संगत को ज्ञात है, कि समागम सेवाओं का शुभारंभ कर सतगुरु ने हम सभी को बुलाया है समागम का हिस्सा बनने के लिए, उन खुशियों को प्राप्त करने के लिए और वह पद की लाइनें भी आ रही हैं कि मैं का दान करके आना कि उस अहम् को साथ नहीं ले जाएं। हम सभी समागम का हिस्सा बशर्ते बने, पर एक वो, नम्र भाव, एक वो अपने आपको अदना निमाणा मान के कि मैं कुछ भी नहीं हूं। परम पूज्यनीय आदरणीय राज पिता जी ने भी अपने विचारों में फरमाया कि भक्ति द्वार अति सांकरा, राई दशवे भाग कि साध संगत, राई का दाना 10 भागों में बांटा गया। वह दसवां हिस्सा इतना द्वार सांकरा कि उसमें अगर मैं अहम को लेकर चलता हूं तो यह हाथी जैसा अहंकार कहां वहां समाना है ? अगर अहम के साथ ही चलना है तो साध संगत मेरी भक्ति कभी नहीं हो पाएगी। अगर भक्ति में आगे बढ़ना है तो अपने आपको नम्र बनाना होगा, सहज बनाना होगा।
साध संगत, यहां बैठे-बैठे एक विचार आया कि पानी का बुलबुला भी अपना वजूद चाहता है, एक बार हवा का संग किया तो आसमान की ऊंचाइयों को छू पड़ा। अब आसमान की ऊंचाइयों में वह बड़े मजे से रह रहा है। उसे लगता है कि यह ऊंचाइयां अब मुझे हमेशा के लिए प्राप्त हो गई। पर फिर जब बारिश का संग हुआ, वही बुलबुला कीचड़ में, गंदे नाले में आ गया तो उसे अपने सागर का एहसास होने लगा और रोज हवा आती उसे आसमान तक पहुंचाती। बारिश आती, उसे नाले का संग दे देती। यही प्रक्रिया वर्षों बरस चलती रही, चलती रही। साध संगत, एक बार सागर को रहम आया। बारिश के झोंके ने उसे नदी में पहुंचा दिया और नदी के द्वारा वह सागर में मिल ही गया। जब वह सागर से मिला तो वह माफी मांगता है कि माफ कर देना। तो सागर ने कहा, मैं तो तुझे पहले दिन से ही माफ किए बैठा हूं। मैं तो पहले दिन से ही तेरा इंतजार कर रहा हूं। जब तूने हवा का संग किया और आसमान की ऊंचाइयों में मग्न हो गया तो, सोचने वाली बात है कि उस बुलबुले को हवा का संग मिला तो आसमान तक पहुंचा। फिर बारिश का संग हुआ तो सागर से मिला। पर सोचने वाली बात है कि उस बुलबुले ने माफी क्यों मांगी ? माफी इसीलिए मांगी उसने कि जब आसमान की ऊंचाइयों में था तो सागर को भूलने का अहम आ रहा था कि मैं अब ऊंचाइयों का हिस्सा बन गया हूं। कहीं मेरा भी तो यही भाव नहीं कि आज जो मानव तन में आकर अनेक सुख सुविधाओं के साधन मिले हैं। धन दौलत, ऐश्वर्य, मान मिला है, सम्मान मिला है, तो कहीं मैं भी अपने परमात्मा को, इस परम पिता परमेश्वर को, जिसका अंश हूं, उसे भूलने की गलती तो नहीं कर रहा ? तो आओ, साध संगत हम सभी इससे माफी मांगें। हर पल, हर क्षण इसके एहसास से जुड़कर रहें कि कहा भी गया है, कि अगर मेरा यह मानव तन परमात्मा की प्राप्ति कर लेता है, तो वह सारे ही आवागमन के चक्र समाप्त होते हैं और मन की एकाग्रता भी बनी रहती है।
मेरा ऐसा मानना है, ऐसा मेरा ध्यान है, क्योंकि आज आप संतो की कृपा से जो भी वचन यहां से आ रहे हैं, सब मेरा ही दामन, मेरी ही झोली संवारने के लिए, मेरा ही किरदार, व्यवहार संवारने के लिए। जो भगत होते हैं, सेवादार होते हैं। उनके मन में सभी के लिए प्रेम और स्नेह भरा रहता है, किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। ऐसा सुंदर व्यवहार, ऐसी चेतनता सेवा के लिए, सत्संग के लिए जब भी मैं निकलती हूं, तो वह मेरा सुंदर व्यवहार, कि मैं तो शायद देख पाता हूं या नहीं देख पाता हूं पर संसार की नजरें हम सभी को उस सुंदर व्यवहार से जोड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। संसार आज हम सभी की ओर देख रहा है कि हम गुरु प्रेमी हैं, हम भक्त हैं, सत्संग के लिए निकल रहे हैं। तो वह चेतनता सद्गुरु बख्शना चाहते हैं।
निरीक्षित निष्काम सेवा का जो यह सुंदर बुलावा आया है मुझे इसके बदले किसी चीज की कामना नहीं, जो सद्गुरु का यह संदेश आया, मैं इस संदेश पर खरा उतर पाऊं। चाहे अग्रिम सेवा में, चाहे समागम में, किसी भी रूप में जाकर अपना यह जो योगदान दे रहे हैं, या देंगे, तो यही बुलावा, ये प्रेम का संदेश हम सभी ने अपने व्यवहार से भी, बोलों से भी, और सद्गुरु के संदेश रूपी ज्ञान और ध्यान से भी फैलाना है। वह जो गीत की लाइनें आती हैं, कि सेवा ही ले आती इस जीवन में बहार, प्रभु कृपा से मिलता बनता हम सब पर यह उपकार, इस उपकार के हम भागीदार बने, सतगुरु आज रहम कर रहे है। हर साल यह उत्सव, यह त्योहार हम सभी के हिस्से आता है। तो साल दर साल मैं अपने आप को देखता चलूं कि मुझमें इन सेवाओं और सत्संग के बाद क्या बदलाव आया ? कितना अंदर से साफ हो पाया हूं ? तो यह सब हमारे अंतर्मन की सफाई के लिए, हमारी आत्मा को इस ज्ञान से जोड़ने के लिए कहा जाता है, यह ज्ञान शरीर का विषय नहीं, गोरे काले का विषय नहीं, यह ज्ञान आत्मा का विषय है। जब जब हम इस ज्ञान को आत्मा से टकराते हैं, आत्मा तक पहुंचाते हैं, आत्मा में इसे ध्यान से जोड़ते हैं, तो इस मन की मैल धीरे-धीरे उतरती जाती है और वह आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है और इस ज्ञान पर खरा उतरकर सेवा, सिमरन, सत्संग को अपने जीवन में अपना पाता है। तो हम सब भी सेवा, सिमरन, सत्संग करते हुए मन, वचन, कर्म से एक होकर सद्गुरु के संदेश को अपने जीवन में औरों के जीवन में पहुंचा पाएं प्यार से कहना धन निरंकार जी। सत्संग कार्यक्रम में कई वक्ताओं ने गीत विचार के माध्यम से भी अपने भाव प्रकट किए।

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