रब को पाना भक्ति है, परमात्मा को पूर्ण सद्गुरु की कृपा से जानकर इकमिक हो जाना, संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में बालाघाट से पधारे महात्मा जय चापूकर जी ने विचार व्यक्त किए
कटनी ( मुरली पृथ्यानी ) ये भक्ति का सुनहरा अवसर हमारे जीवन में सतत, निरंतर, और बरसों बरस से चला आ रहा है और यह शब्द बार-बार क्यों कहा जाता है ? आज हम थोड़ी चिंतन करेंगे कि भक्ति लोकों अभी ना समझे, कि यह संसार के लिए बात हो रही है कि भक्ति लोकों अभी ना समझे, रब को पाना भक्ति है। हुजूर फरमाते हैं कि यह हमारे लिए शब्द है, कि रब को पाना भक्ति है। यहां जानना नहीं लिखा गया यहां पाने की बात हो रही है और पाना और जानना, दोनों में बड़ा अंतर है। पानी के बारे में पढ़ लेना, पानी को प्राप्त कर लेना, पानी के बारे में जान लेना, और पानी को प्राप्त करके अपनी प्यास बुझा लेना, यह सारी अवस्थाएं अलग हैं। परमात्मा के बारे में शास्त्रों में पढ़ लेना, परमात्मा को पूर्ण सद्गुरु की कृपा से जान लेना, और जानकर इसको प्राप्त करके इकमिक हो जाना, ये सारी अवस्थाएं अलग हैं। अब हमने चिंतन करना है कि हमारी कौन सी अवस्था है। उक्त विचार संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में बालाघाट से पधारे महात्मा जय चापूकर जी ने अवतारवाणी के शब्द पर उपस्थित साध संगत के समक्ष व्यक्त किए।
साधसंगत, हम यहां कोई दौलतों की प्राप्ति के लिए नहीं आए, कोई ताकत की प्राप्ति के लिए नहीं आए, किसी प्रकार की पद-पदवियों को प्राप्त करने नहीं आए हैं। हमारे जीवन का जो मकसद था, सद्गुरु माताजी के चरणों में आने का, वह एक मात्र मकसद मुक्ति, मोक्ष कि मुक्ति का हकदार वही है, ज्ञान को जो जी लेता है। अगर लेने की बात होती, तो हुजूर तो लिख देते कि ज्ञान को जो जन लेता है, उसकी मुक्ति का सर्टिफिकेट पक्का है। हमने चेतन होना है, हमने समझना है कि हमारे जीवन का मकसद क्या है ? हमारे जीवन का एकमात्र मकसद जो है, केवल और केवल ये परमात्मा की प्राप्ति है और जब तक परमात्मा को हमने प्राप्त नहीं किया, तब तक हमारे आने का कारण सार्थक नहीं हो पाएगा। क्योंकि जीवन का मकसद केवल-केवल-केवल ये परमात्मा की प्राप्ति है और जब तक परमात्मा को मैं प्राप्त न कर लूं, तब तक की यात्रा में ठहराव नहीं है।
साधसंगत, महाराष्ट्र के एक संत हीराजी, इस बात को वो अपनी वाणी में कहते हैं कि आने का पाठ कौन, जाने का घाट कौन, ब्रह्म कौन, ब्रह्म का कपाट कौन ? जीव कौन ? जीव का स्वरूप कौन ? देह लेकर जाता कौन ? सपने में भागता कौन ? और कौन में कौन जाकर समाया है ? इतना नहीं जाना तो क्यों नर तन पाया है ? हमें चिंतन करना पड़ेगा कि ये मनुष्य का शरीर जिसको बार-बार ग्रंथों में हम पढ़ते हैं कि 83,99,999 योनियों के बाद बड़े भागों से मनुष्य का शरीर मिला है और इसको ही हम बार-बार पढ़ते हैं। गोस्वामी जी की इस बात को हम बार-बार पढ़ते हैं क्योंकि अच्छी लगती है। क्यों अच्छी लगती है ? क्योंकि सारी योनियों का राजा हमको बोला जाता है कि 84 लाख योनियों का तेरे को मैंने राजा बनाया है। इसलिए बार-बार हम इसको पढ़ते हैं कि बड़े भाग मानुष तन पावा सुर दुर्लभ सब ग्रंथ गावा। देवी-देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। ऐसा आपको ये मनुष्य का शरीर मिला है। गोस्वामी जी इधर भी फरमाते हैं कि छिपी जल पावक गगन समीरा पंच रचित अति अति अति अधम शरीरा। इस शब्द को जब आप समझेंगे तो यहां अधम मतलब बड़ा खराब शरीर मिला, एक जगह कहा जा रहा है कि बड़े भागों वाला। ये दोनों की बात क्या है ? दोनों में बात यही है कि जब ये मानव का चोला आपको प्राप्त हुआ तो इसके मिलने का एकमात्र जो कारण था वो केवल और केवल ये परमात्मा की प्राप्ति और जब तक ये परमात्मा मेरे जीवन में नहीं आएगा, जब तक ये परमात्मा का आगमन नहीं होगा, तब तक ये चक्कर मेरे लिए तैयार है। और जब तक ये चक्कर तैयार है तो बड़ी पीड़ा दायक ये चक्कर होते हैं।
साधसंगत, आत्मा जब ये साकार रूप के दर्शन कर लेती है तो ये अश्रु धारा बहने लग जाती है कि अब इस यात्रा को ठहराव चाहिए, क्योंकि अब ये यात्रा की पीड़ा अब सहन नहीं होती। जब तक सद्गुरु के चरणों में आप मरेंगे नहीं, जब तक इनके चरणों में आकर अपनी 'मैं' को नहीं मारेंगे, तब तक बात बनने वाली नहीं है। क्योंकि इनके चरणों में आके मरना ही होता है। हम भवन के बाहर कोई दौलत वाले रहे होंगे, कोई शोहरत वाले रहे होंगे, कोई ब्राह्मण होंगे, कोई क्षत्रिय होंगे, कोई वैश्य होंगे, कोई हरिजन होंगे, कोई डॉक्टर होंगे, कोई मास्टर होंगे, कोई कलेक्टर होंगे, कोई बैरिस्टर होंगे, सारे भवन के बाहर थे हम। लेकिन अब आपके चरणों में हम हैं। हम आते हैं चरणों में नमस्कार करके बैठते हैं तो हमारा यही भाव होता है कि बाहर में पता नहीं क्या-क्या था, लेकिन अब आपके चरणों में आ गया हूं, तो अब मैं आपका हूं। बाहर तो मैं सब कुछ हूं, लेकिन अब आपके चरणों में हूं, अब आप मुझे संभालो। तो इस भावना से जब भगत सतगुरु के चरणों में जुड़ता है, अपने अस्तित्व को मिटाता है। किसान भाई दाना फेंकते हैं, अगर ऊपर है तो कहीं चिड़ियों का घास बनेगा या वो दाना खराब हो जाएगा। लेकिन दाना जिस दिन अपनी हस्ती को मिटाता है, अपने आपको मिट्टी में दबाता है, तो आप जानते हैं कि दाना खाक में मिलकर ही गुल-ए-गुलज़ार होता है। कबीरदास जी कहते हैं कि तोही मोही मोही तोही अंतर कैसा ? राम कबीरा एक भए।
साधसंगत, ज्ञान का अभिमान तो बहुत बड़ा होता है कि मैं चार वेद कंठस्थ जानता हूं, चार वेद, छह शास्त्र, 18 पुराण, 108 उपनिषद, 51 स्मृतियां और ऐसे अनेकों-अनेकों प्रकार के ग्रंथों को बढ़िया मजबूती से पढ़ लिया। इस बात को महात्माओं ने कहा, इसको कहा जाता है ज्ञान का अभिमान। कि ज्ञान का अभिमान ओलों की तरह बह गया। कि जब ओले गिरते हैं, कभी पकड़ने का प्रयास करो तो पानी बन जाते हैं कि ज्ञान का अभिमान ओलों की तरह बह गया। एक व्यक्ति कुछ बात पते की कह गया, हो गई है शाम इस बाग में तुझे पथिक, तू खा न पाया फल, तू पेड़ गिनता रह गया। तू खा न पाया फल, तू पेड़ गिनता रह गया। मैं आया था गुरु के चरणों में, सतगुरु माता जी के चरणों में केवल-केवल अपने आप को मिटाने के लिए। केवल और केवल यह परमात्मा को प्राप्त करने के लिए, लेकिन सब कुछ मैंने प्राप्त किया, लेकिन परमात्मा को छोड़ दिया और आया मैं इसीलिए ही था, सब चिंतन करके जाना, सब सोच विचार करके जाना और विचार चिंतन बहुत जरूर करना। क्योंकि अगर यह परमात्मा प्राप्त नहीं हुआ है तो यह 84 का चक्कर तैयार है और बड़ा पीड़ादायक।
साधसंगत, भक्ति में सद्गुरु माताजी प्रेम सिखा रहे हैं। तो पहली भक्ति वात्सल्य भक्ति, जो मां यशोदा और भगवान कृष्ण के बीच में, भगवान श्री राम और मां कौशल्या के बीच में, यह मां और पुत्र का प्रेम जिसको वात्सल्य भक्ति कहा जाता है। इसके आगे सखा भक्ति, जो अर्जुन और भगवान कृष्ण के बीच में। जहां अर्जुन भगवान को कहते हैं कि प्रभु ऐसा कर लेते हैं, प्रभु यह कर लेते हैं, तो अर्जुन के पास यह सखा भक्ति है। इसके आगे दास भक्ति और जैसे ही दास भक्ति का जिक्र होता है, तो भगवान हनुमान जी का चित्र नजरों में आता है। हनुमान, भगवान हनुमान जी की वह जो भक्ति इतिहास में हमें पढ़ाई गई, सुनाई गई, वह याद आती है कि क्या इनकी भक्ति थी, क्या इनकी दास भक्ति थी कि जहां उनके साथी कहते है, "हनुमान जी, आप बड़े शक्तिशाली हो, आपको बोला गया कि मां जानकी का पता लगाओ। आपने एक छलांग में यह सागर पार किया, कोई सागर पार कर नहीं पा रहा था, आप बड़े शक्तिशाली हो। आपको कहा गया कि जाके संजीवनी बूटी लेकर आओ, आपने सारा पहाड़ ला दिया। बड़े शक्तिशाली हो आप।" हनुमान जी के हाथ जुड़ गए। हनुमान जी कहते हैं, "यह सारा किया मेरे राम का है। मेरा कुछ नहीं है।" चिंतन करना, कहीं हम थोड़ा सा कुछ कर लेते हैं तो, "मैंने किया, मैं ही कर सकता हूं, मेरे कारण ही हुआ है।" लेकिन हनुमान जी सब कुछ करने के बाद भी कहते हैं कि "सारा किया मेरे राम का है जी, मेरा कुछ नहीं है। मेरा नाम मत लो।" प्रेम भक्ति के कारण राधे कृष्ण के मंदिर एक हैं, ये प्रेमा भक्ति, ये प्रेमा भक्ति का फल है। आज सतगुरु माताजी हमें प्रेम सिखा रही हैं, प्यार सिखा रही हैं, मिलवर्तन सिखा रही हैं। सत्संग कार्यक्रम में गीत विचारों के माध्यम से भी वक्ताओं ने भाव प्रकट किए।

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