परमात्मा से प्रेम करना है तो उसे देखना पड़ेगा और यह देखने की नजर केवल सतगुरु को होती है.. सतगुरु ही इस नजर को हमे बक्श देता है .. संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में महात्मा सुनील मेघानी जी ने विचार व्यक्त किए
कटनी ( मुरली पृथ्यानी ) इंसान अपने आपको जातियों में भुलाकर बैठा हुआ है, जिस तरह बात आती है कि एक किराने की दुकान में एक व्यक्ति गया और उसने शक्कर मांगी तो उस किराने वाले ने शक्कर निकाल कर उस व्यक्ति को दे दी लेकिन उस डिब्बी में नमक लिखा हुआ था तो उसने कहा कि आपने इसमें नमक लिखकर रखा है और अंदर शक्कर डालकर रखी है ये क्या बात है ? तब उसने कहा कि चीटियों से बचाने के लिए मैंने इसमें नमक लिखकर रखा है ताकि इसमें चिटियां न लगें और मेरी शक्कर बची रहे। साध संगत जी ठीक इसी प्रकार से आज इंसान अपने आपको वेश भूषा, पोषाकों के अंदर छिपाकर इस धर्म को अपना कर चल रहा है लेकिन असल तो जो यह परमपिता परमात्मा है जिसका ये अंश है उसकी पहचान उसे प्राप्त नही हो रही है। धर्म का सही अर्थ इस आत्मा का परमात्मा से मिलना होता है। सही मायनों में धर्म का अर्थ एक ही है कि इस परमपिता परमात्मा की प्राप्ति कर इसकी भक्ति की जाये वर्ना तो इंसान आज भक्ति के नाम पर अपने आपको अनेकों प्रकार की उलझनों में फंसाए हुए है। ये संसार है जो नाशवान है इस संसार को वह सत्य समझ कर चल रहा है और जिसने इस संसार को बनाया हुआ है इस सृष्टि का निर्माण किया है उस निरंकार दातार परमपिता परमात्मा को सत्य नहीं समझता है। उक्त विचार संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में रविवार 31 दिसंबर को आयोजित सत्संग में अवतार वाणी के शब्द पर विचार करते हुए महात्मा सुनील मेघानी जी ने उपस्थित साध संगत के समक्ष व्यक्त किए।
आगे उन्होंने कहा कि लेकिन जब इंसान सतगुरु की शरण में आता है, ब्रह्मज्ञानी संतों का संग करता है सत्संग में आता है जिसके लिए लिखा गया है कि सत्संग की एक घड़ी आधी घड़ी आधी ते पुन आध दिखा संगत साध की कटे कोट अपराध। जैसे ही सत्संग का संग करता है विश्वास परमपिता परमात्मा पर टिकता जाता है। इस सृष्टि में रहते हुए सारे सुखों का भोग तो करता है प्रकृति का लाभ तो ले रहा होता है लेकिन साथ ही साथ इस परमात्मा की ओर भी उसका ध्यान सत्संग में आने पर टिकता है वरना तो ये प्रकृति में ही उलझा फंसा हुआ है। जिस तरह से पीर पैगम्बर जिस देश जिस काल में पैदा हुए उस देश और काल के अनुसार उन्होंने वेशभूषा को धारण किया उस भाषा को उन्होंने धारण किया और उनकी उस भाषा के अनुसार सदशास्त्रों की रचना की तब इंसान को समझ में आया। समय समय पर यह एक पावन घट को धारण करके इस मानवता को इस सत्य के साथ जोड़ने के लिए इशारा करते हैं।
आप ब्रह्मज्ञानी संत यहां बैठे हुए हैं इस निरंकार दातार परमपिता परमात्मा को देखकर इसकी भक्ति कर रहें हैं इस परममुख परमात्मा को अंग संग जानकर इसके आगे प्रार्थना की जाती है यह आनंद का श्रोत है। हम सब प्रेम से कहते हैं कि प्रेम से कहिए धन निरंकार, साध संगत अगर गहराई से विचार करें कभी क्रोध में भी हम कहें धन निरंकार तो साध संगत क्रोध में हमारे मुख से धन निरंकार नहीं होती है और जैसे ही इसका सिमरण करते हैं, तुही निरंकार मैं तेरी शरणा मुझे बक्श लो तो एकदम से साध संगत यह क्रोध गायब हो जाता है, यही कारण है कि सतगुरु ने सेवा सुमिरण और सत्संग इस ज्ञान के साथ इस जीवात्मा को बक्शे।
साध संगत रामचरित्र मानस में लिखा है बिन देखे होए न प्रीति बिन प्रतीति न होए प्रीति। परमात्मा से प्रेम करना है तो उसे देखना पड़ेगा और यह देखने की नजर केवल सतगुरु को होती है, सतगुरु ही इस नजर को हमे बक्श देता है।
साध संगत इंसान पढ़ता है पठन-पाठन करता है अनेक आयाम करता है मुबारक है लेकिन इस ज्ञान को हासिल इंसान जब तक नहीं करता तब तक उसे मोक्ष वाली अवस्था प्राप्त नहीं होती। यहीं आनंद की अवस्था को प्राप्त करने के लिए ऋषियों मुनियों ने अनेक जप तपों को किया यह तो बहुत सरल विधि से होता है। तज अभिमान गुरु के चरणों में दंडवत होकर ये जीवात्मा अपने सारे ऐसे कार्य जो इस संसार में इंसान सच समझ कर कर रहा है उनको त्याग कर और इस परमात्मा की एक अनुभूति पाने के लिए जिज्ञासा प्रकट करता है तत्व ज्ञानी की शरण में आकर इस दिव्य निरंकार के दर्शन हो जाते हैं सतगुरु किसी भी कमी को नहीं देखता।
जिस तरह अर्जुन ने इस ज्ञान को पाकर इसका वंदन किया कि तेरे दाएं को प्रणाम तेरे बाएं को प्रणाम उसी तरह से आत्म ज्ञानी चारों तरफ इस निरंकार को महसूस करता है यही ब्रह्म ज्ञान है। आत्मा इस शरीर से जब निकल जाती है तो ये शरीर एक शव बन जाता है और फिर उसका नाम रूप सब लुप्त हो जाता है हम कहते हैं कि शव यात्रा में शामिल हो रहे हैं तो जब तक ये स्वासें इस हृदय में हैं तब तक निरंकार दातार का दर्शन इस आत्मा को प्राप्त हो सकता है, ये अवसर हमारे हिस्से में है। इस आवागमन के चक्कर से बचाने के लिए ही संत हमेशा प्रयास करते हैं और संतों ने हमेशा ही प्रयास किया है। सत्संग कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साध संगत उपस्थित थी।
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