उन महिलाओं को राजनीति में आगे लाना चाहिए जो सोच से स्वतंत्र हों जो अपने दम पर लोगों के लिए विकास का रथ खींच पायें
( मुरली पृथ्यानी) इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि गांव कस्बे शहर की राजनीति में महिलाओं का आरक्षण की वजह से उनका सिर्फ नाम ही इस्तेमाल किया जाता है। स्वतंत्र रूप से कम ही ऐसी महिलाएं होंगी जिन्होंने अपने दम पर राजनीति में कोई मुकाम हासिल किया होगा। महिलाओं के अधिकार आरक्षण देकर सुरक्षित किए जाने की बात तो तमाम राजनैतिक दल करते आए हैं। चुनाव में कुछ टिकट देकर अपनी पीठ भी थपथपाते हैं। तब जनप्रतिनिधि के पद पर चुनी गई महिला जब बैठती है तो लोगों को लगता है कि अब जमाना बदल गया है। दूर से देखने में तो सब यही लगता है कि महिलाएं पद पर बैठकर निर्णय कर रही है पर विश्लेषण करिए तो असलियत समझ में आ जाती है कि ज्यादातर लोग महिलाओं के नाम का सिर्फ इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर सरपंच पार्षद जैसे पद पर चुनी गई महिलाओं के निर्धारित काम उनके पति ही कर रहे होते हैं। यह भी एक सत्य है कि पति ने भी उसे आरक्षण होने की वजह से उसका नाम भर आगे किया होता है क्योंकि उन्हें अपना राजनीतिक वजूद कायम रखना होता है। महिला का बस नाम होता है, निर्णय पुरुष पति के ही चलेंगे, मर्जी पुरुष की ही चलेगी। देखने में यही आता है कि उसका इस्तेमाल सिर्फ हस्ताक्षर करने तक सीमित रहता है। स्थितियां हर जगह एक जैसी ही हैं। संविधान ने तो उसे अधिकार दिए हैं बस बीच में पुरुष मानसिकता और उसकी अपनी राजनीति आड़े आ जाती है। पूर्ण अधिकार संपन्न निर्णायक महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम है। अब क्या करें ? कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि जहां जनप्रतिनिधि के लिए महिला वर्ग के लिए आरक्षण है वहां उन महिलाओं को भी चुनाव लड़ने के लिए मौका देकर आगे किया जाए जो उसकी दावेदारी रखने की क्षमता रखती हो, स्वतंत्र हो और दूसरों के हस्तक्षेप से परे हो। आगामी नगर निगम चुनावों और दूसरे चुनावों में भी राजनीतिक दलों को उन महिलाओं को राजनीति में आगे लाना चाहिए जो सोच से स्वतंत्र हों जो अपने दम पर लोगों के लिए विकास का रथ खींच पायें बस नजरिया व्यापक रखना होगा।
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