
महिलाओं के अधिकार आरक्षण देकर सुरक्षित किए जाने की बात तो तमाम राजनैतिक दल करते आए है... चुनावों में कुछ टिकट देकर अपनी पीठ भी थपथपाते है.... किसी पद पर चुनी गई महिला जब बैठती है तो लोगो को लगता है कि अब ज़माना बदल गया है.... दूर से देखने में तो सब सही लगता है कि महिलाये पद पर बैठ कर निर्णय कर रही है... जरा पास में जाकर विश्लेषण करिये तो असलियत समझ में आ जाती है कि ज्यादातर लोग महिलाओं के नाम का सिर्फ़ इस्तेमाल करते है... महिलाओं के निर्णय लेने की स्थिति न के बराबर है...
सरपंच, पार्षद जैसे पद पर चुनी गई महिलाओं के निर्धारित काम उनके पति ही कर रहे होते है... यह भी एक सत्य है कि पति ने भी उसे आरक्षण होने की वजह से उसका नाम भर आगे किया होता है... महिला का बस नाम होता है... निर्णय पुरुष पति के ही चलेंगे... मर्जी पुरुष की ही चलेगी... उसका इस्तेमाल सिर्फ़ दस्तखत करने... शो पीस बना कर बिठाने तक सीमित है... स्थितियाँ कमोबेश हर जगह एक जैसी है... जब मुद्दों को जानने समझने की बात आएगी वह चाह कर भी कुछ नही कर पायेगी... संविधान ने तो उसे अधिकार दिए है बस बीच में पुरुष मानसिकता आड़े आ ही जाती है... अधिकार सम्पन, निर्णायक महिला वर्ग का प्रतिशत बहुत कम है.... अब क्या करे ? कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है जहां जनप्रतिनिधि के लिए महिला वर्ग का आरक्षण है तो वहां उसी महिला को खड़ा किया जाए तो ख़ुद उसकी दावेदारी रखने की क्षमता रखती हो... ना कि उस महिला को जिसे सिर्फ़ पुरुष अपने राजनैतिक स्वार्थ की वजह से सामने भर खड़ा कर रहा हो... इन्हीं बातों से अक्सर महिलाओं की क्षमता पर सवालिया निशान खड़े किया जाते है जबकि दोष उनका बिलकुल भी नही होता....
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