प्रभु सबसे प्रेम करते हैं पर प्रभु से प्रेम करने वाले विरले होते हैं .. बाबा हरदेव सिंह जी ने भी कहा 'प्यार से जो भरपूर है रहता वो दिल पूजा का घर है' .. फरवरी माह की संत निरंकारी पत्रिका का जीवंत प्रेम पर विशेषांक है
कटनी ( प्रबल सृष्टि ) फरवरी महीने की संत निरंकारी पत्रिका का जीवंत प्रेम पर विशेषांक है, पहले पन्ने पर ही प्रेम का मूल भाव है स्वीकार करना, प्रेम गली अति सांकरी, बिनु परतीति होउ न प्रीति, प्रेम में कोई मांग नही होती, प्रेम का मार्ग ही है कल्याण का मार्ग शीर्षक के अंदर लेख हैं। संपादक महात्मा हरजीत निषाद जी ने प्रेम जीवन का आधार है पर संपादकीय लिखा है जो इस प्रकार है .. प्रेम जीवन की आनंदमय अवस्था है। प्रेम जीवन का आधार है, यह जीवन की अमृत धारा है। प्रेम प्रभु का स्वरूप है। 'जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो', प्रेम इंसान को भगवान से मिला देता है। प्रेम के बिना जीवन, व्यर्थ का भार ढोने के समान है। बाबा हरदेव सिंह जी ने भी कहा 'प्यार से जो भरपूर है रहता वो दिल पूजा का घर है'। प्रेम में ऐसी विलक्षण क्षमता है कि ये मन को मंदिर बना देता है। बाबा जी प्रेम का शाश्वत रूप थे और प्रेममय होकर हमेशा प्रेम का विस्तार करने की प्रेरणा देते थे। प्रेम से भरे, सत्गुरु जगत में प्रेम बांटने के लिए ही आते हैं।
शब्दों के द्वारा प्रेम का सन्देश देने से कहीं अधिक प्रभावशाली है स्वयं प्रेम करना, प्रेम देकर प्रेम पाना और निंदा-नफरत, ईर्ष्या द्वेष की पथरीली जमीन पर भी प्रीत-प्यार, नम्रता-सदभाव के गुलाब खिलाते जाना।
महात्माओं ने कहा- 'प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय, तो फिर प्रेम आए कहां से? इसे प्राप्त कैसे करें? इसका उत्तर सन्त कबीर जी ने यह कहकर दिया कि 'प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय । संकरी गली में अभिमानी सिर ऊंचा करके प्रवेश करने की जगह कहां होती है? ये प्रियतम की गली है. इसमें अभिमान रूपी सिर को स्वयं से जुदा करके भीतर जाना होता है। अब प्रश्न है कि जब सिर ही न होगा तो स्वयं का अस्तित्व ही कहां रह जाएगा? इसका समाधान सन्तों ने यह कह कर दिया कि अपने अस्तित्व से इंकार करना ही सच्चे प्रेम का आधार है। मैं भी रहूं, तू भी रहे, यह प्रेम का चलन नहीं है, प्रेम में ऐसा नहीं होता। श्याम को रिझाने के लिए राधे श्याम कहना शुरु किया जो अन्तर्मन की लिव लगते ही यह राधे-राधे में रूपान्तरित हो गया। प्रेम में श्याम की जगह राधे-राधे हो जाना ही प्रेम की सच्ची उपलब्धि है। सत्गुरु-निरंकार की उपासना का आधार भी प्रेम ही है। इंसान के लिए अभिमान का त्याग कर पाना आसान नहीं होता है, पर जो ऐसा कर सका वह प्यार के सागर अपने प्रभु से जा मिला।
क्रोध, प्रेम का शत्रु है और अहंकार प्रेम के लिए विष के समान। सन्तों ने प्रेम ते प्रकट होय मैं जाना, सिर्फ कहा ही नहीं इसे जीवन्त भी किया। प्रेम करने वालों ने सदा-सदा के लिए प्रभु का सान्निध्य पाया जबकि नफरत करने वालों के लिए प्रभु का संग दुर्लभ ही रहा।
प्रभु सबसे प्रेम करते हैं पर प्रभु से प्रेम करने वाले विरले होते हैं। यह संसार, संसार से प्रेम करने वालों से, पदार्थ के लिए रोने वालो से भरा पड़ा है। प्रभु से प्रेम करने, प्रभु के लिए आंसू बहाने वाले कम हैं पर जिन्हें प्रभु से प्रेम का आनंद एक पल भी मिल गया वो सांसारिकता के के लिए भी मकड़जाल में कभी नहीं फंसता। इन्सान जीवन भर कुछ न कुछ सीखता है। प्रेम का निरन्तर अभ्यास ऐसी सिखलाई है जो सत्गुरु के सान्निध्य में प्राप्त होती है। हम जो कुछ भी सीखते हैं वह वास्तव में स्वयं अनुभव करके सीखते हैं। मन को जो प्रिय लगता है, प्रेम भी उसी से होता है। बिना देखे मन नहीं मानता और बिना माने प्रेम नहीं होता। प्रेम का यह विस्तार गुरु के सान्निध्य में गुरु की कृपा से ही सुन्दर रूप लेता है।
दुनिया में कितने ही राजा-रानी, सामंत-साहूकार हुए पर, 'हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय' कहने वाली महारानी मीरा जैसे कम ही हुए। मीराबाई को राजमहल से ज्यादा गुरु रविदास जी की कुटिया प्रिय लगती थी। राजा जनक को राज वैभव से अधिक इस अविनाशी से अनुराग था। माता सविन्दर हरदेव जी ने भी यही कहा कि- "कुछ भी हो बस प्यार ही प्यार हो।" संसार में रहकर परमात्मा से प्रेम करना और सबका हित चिंतन करना ही जीवन्त प्रेम है। जो प्रेम की रमज को समझ गय वह प्रेममय हो गया, प्रभुमय हो गया, उसका जीवन प्रेम का जीवन्त रूप बन गया।
पत्रिका के सभी लेख, प्रेरक वचन, कविताएं हमेशा की तरह पठनीय और मानव को जागृत करते हुए हैं इसका लाभ सभी को उठाना चाहिए।
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