सतगुरु ने नौखंड माया को अलग करके इस सत्य निराकार को सामने प्रकट कर दिया, एक पंख दे दिया दूसरा कहते हैं कर्म का पंख हमें लगाना होगा, संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में महात्मा श्री सुनील मेघानी जी ने विचार व्यक्त किए
कटनी ( मुरली पृथ्यानी ) इस संसार में भक्ति तो अपने अपने प्रकार से हर इंसान किसी रूप में अपनी समझ के अनुसार कर रहा होता है असल में तो इसके पीछे हर इंसान को भगवान पाना होता है लेकिन इसकी पहचान नहीं होने के कारण वह अज्ञानता में जीवन को जीता जाता है यह अज्ञानता आखिर इंसान की दूर कैसे होती है ? किस तरह वह अज्ञानता से इस रोशनी में आएगा इसका प्रयास निरंतर ब्रह्मजानी संतों के द्वारा प्रभु की पहचान करा कर किया जाता है। अवतारों ने जन्म लिया हर युग में आये हैं और उन्होंने संदेश दिए उनका पहनावा बोलचाल रहन सहन अलग अलग रहा हो लेकिन उनका संदेश हमेशा एक ही रहा। हर संत महापुरुष भक्त ने इसी एक की ओर इशारा दिया कि इस एक के साथ अपने आपको जोड़ लो। उक्त विचार संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में रविवार के सत्संग में महात्मा श्री सुनील मेघानी जी ने अवतार वाणी के शब्द पर उपस्थित साध संगत के समक्ष व्यक्त किए।
उन्होंने गुड़ का उदाहरण देते हुए समझाया कि जिस तरह गुड़ होता है गुड़ खाने से ही उसका आनंद आता है लेकिन जिसने गुड़ कभी खाया ही न हो फिर चाहे वह कितने भी उसके लाभ बताता रहे उसे देखता भी रहे उसका कोई भी लाभ उसे प्राप्त नही होता है, गुड़ के बारे में सुनना देखना ही काफी नही उसे ग्रहण करना पड़ता है तभी उसकी मिठास महसूस होती है
इसी तरह ब्रह्मज्ञान को दिखाया जाता है इस जीवात्मा की भेंट कराई जाती है। उसने शास्त्रों से पढ़ लिया कि थाप्या न जाये, कीता न होई, आपे आप निरंजन सोई, जिसकी कोई स्थापना नहीं कर सकता लेकिन उसे समझ नहीं लिया लेकिन जब सतगुरु ने नौखंड माया को अलग करके इस सत्य निराकार को उसके सामने प्रकट कर दिया, तब उसने उन शास्त्रों से मिलान करके देख लिया जिस तरह उस गुड़ के बारे में पड़ रहा था अब उसी गुड़ को देख लेता है लेकिन गुड़ देखने के बाद भी काम बनने वाला नहीं है। सतगुरु ने ब्रह्मज्ञान को दे दिया सतगुरु ने एक पंख दे दिया कि यह ज्ञान का पंख है दूसरा हमें कहते हैं कर्म का पंख हमें लगाना होगा उस गुड़ को हमें ग्रहण करना है तभी तो उसकी मिठास को हम अपना पाएंगे।
जिन्होंने अपने जीवन में इस निराकार दातार को अहसास में बसा लिया है उनका विश्वास द्रण हो जाता है जब इसके उपर विश्वास अकीदा हो गया फिर उन्हें आनंद प्राप्त होने लगता है। ये आत्मा इस परमात्मा को जानकर दृणता की और आगे बढ़ती है परोपकार उनका जीवन हो जाता है ये ज्ञान इंसान को केवल सत्संग के द्वारा ही मिल सकता है। दास पढ़ रहा था भगत कोटूमल जी संगत के सामने ऐसी छोटी छोटी बातों से समझाया करते थे जब कोई संत दीवाल से टिक कर सत्संग को सुन रहा होता था तब भगत कोटूमल जी अपने विचारों में ये भी फरमाते कि दीवाल तो जड़ होती है अगर हमारी कोई शारीरिक मजबूरी नहीं है तो हमें दीवाल से टिक कर सत्संग को नहीं सुनना बल्कि चेतन होकर सत्संग को सुनना है अगर इस जड़ का सहारा लेकर श्रवण करेंगे तो हम भी जड़ ही हो जाएंगे लेकिन अगर चेतन होकर दीवाल से हटकर हम सत्संग श्रवण करेंगे तो हमारे अंदर चेतनता आएगी।
ये ब्रह्मज्ञानी संगतों की संगत है हमारे जीवन में भी सद गुण नित ही प्रवेश होते चले जाते हैं और हम अवगुणों से दूर होते चले जाते हैं। निरंतर इस संगति के साथ हमारा नाता मजबूत हो जाता है। पहले तो हमें हफ्ते में एक बार संगत बक्श दी थी लेकिन अब ये निरंतर संगत कृपा से हमारे हिस्से में आई है तो हम भी इन संगतों में बढ़ चढ़ कर आएं। हम शब्दों के द्वारा संसार में विचरण करते हैं ब्रह्मज्ञानी संत संसार में सहनशील होते हैं क्योंकि सहनशीलता इनका गुण होता है यह कोमल रूप बन जाए। कच्चों का नही हमें पक्कों का संग मिल बैठकर करना है इससे हमारे मन की स्थिति भी ठीक होती है क्योंकि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। मन के भीतर केवल संसार चल रहा है तो मन तनावग्रस्त होता है इसलिए हमें इस निराकार दातार को जीवन में महत्वा देनी है। हमें उदहारण देना नहीं है उदहारण बनना है। सत्संग कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साध संगत की उपस्थिति रही।
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