ज्ञान मन में टिकते ही सारे भरम भूलेखे दूर हो जाते हैं, जैसे दिया जलते ही अंधेरा चला गया, संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में महात्मा अविनाश राजपाल जी ने विचार व्यक्त किए
कटनी ( मुरली पृथ्यानी ) यह लम्हा, यह जीवन में जो घड़ी आई है, यह कोई मामूली घड़ी नहीं है, क्योंकि जहां भी महापुरुष संत जन एक साथ बैठ के जब हरि की चर्चा करते हैं, तो उसकी अपनी ही बात होती है कि जिसको बयान नहीं किया जा सकता, शुक्राना सतगुरु का है कि हमें यह घड़ी दी है। निरंकार है कर्ता जगत का, सारा संसार जो रचा हुआ है इसमें यह पेड़-पौधे, यह मानव की रचना, जंतुओ की रचना, यह जब स्वयं करके निरंकार इसी के बीच में छिप गया है और इस निरंकार को जानने का तरीका सतगुरु है और सतगुरु की पहचान तो हमने कर ली है और अब सतगुरु ने जो हमें निरंकार का दीदार कराया, वह भी बहुत बड़ी बात है और इस ज्ञान की समझ की कदर कर पाए और जिस तरह से ये निरंकार हमारे जीवन में जरूरी है, वह पैगाम, वह संदेश हम अपने आस-पड़ोस, अपने परिवार जनों तक भी पहुंचा सके क्योंकि अगर यह जो जन्म मिला है, यह जन्म अगर छूट गया, तो फिर वही जन्म हमारे हिस्से आ जाएगा कि जब हम देखते हैं, कहीं सड़क पे कोई जानवर गिरा हुआ है, कई ऐसे कीड़े-मकोड़े जो हमारे पैरों के नीचे आ जाते हैं तो, यह स्थिति देखी जाए कि मेरी ही स्थिति होती अगर मैंने इस परमात्मा की प्राप्ति नहीं की होती। उक्त विचार संत निरंकारी सत्संग भवन माधवनगर में रविवार के सत्संग में अवतारवाणी के शब्द पर महात्मा अविनाश राजपाल जी ने उपस्थित साध संगत के समक्ष व्यक्त किए।
साध संगत, इस जन्म में जब मैं कर्म कर रहा हूं, इस जन्म में जो प्राप्ति कर रहा हूं, तो मुबारक है और अगर यह प्राप्ति मैं नहीं कर पा रहा हूं या मेरा कोई भी सगा संबंधी, वह मेरा रिश्तेदार, वह मेरा घर परिवार का अगर इससे चूक जाता है, तो यह उसकी स्थिति है। अब यह मेरी जिम्मेदारी है कि क्या मैं अपने उस व्यक्ति को जिसको मैं अपना परिवार मान रहा हूं, उसकी स्थिति मुझसे देखी जाएगी ? अगर नहीं, तो उसको आज ही हम संगत की और प्रेरित करें और सतगुरु से जोड़ें। क्योंकि देखा जाए, तो परमात्मा की जरूरत तो सिर्फ तभी पड़ती है जब कोई काम अड़ जाता है, नहीं तो व्यापार अच्छे से चल रहे हैं, क्या जरूरत है ? घर परिवार में सुख-शांति है, क्या जरूरत है परमात्मा की ? और जब कोई काम मेरा रुक गया, कि वह स्थिति मेरी न बन जाए कि "हैरत हुई तुम्हें मस्जिद में देख कर, एक आलिफ ऐसा भी क्या हो गया जो खुदा याद आ गया" कि खुदा की याद मुझे तभी आती है जब मेरा कोई काम रुकता है या मुझे कोई जरूरत पड़ती है या मुझे वाकई में उस समय भी परमात्मा की याद है। दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होए!
साध संगत, जब मैं हर पल इसको चेतन रखता हूं, हर पल इसको मैं अपने मन में बसाए बैठा हूं, तो वह परिस्थिति मेरे जीवन में नहीं आएगी और अगर आती भी है, तो उसी तरह से जैसे बिल्ली अपने बच्चे को उठा के एक साइड करती है और वही बिल्ली अगर चूहे को पकड़ती है तो क्या मुश्किल खड़ी करती है ? वो परिस्थिति मेरी तब बनती है जब हर पल, हर क्षण इसके साथ जुड़ा रहता हूं। तो ये परमात्मा जो हमारे हिस्से में आया है, इसकी हम कदर करें। अगर मुझे ये दुनियावी चीजों के लिए परमात्मा की जरूरत है, तो एक छोटा सा उदाहरण दास को याद आ रहा था कि अगर किसी घर में दही रखी हुई है, अब मेरे पास दो ऑप्शन हैं: या तो मैं उससे छाछ बना लूं और उसको यूज कर लूं, या दूसरा ऑप्शन, अगर मैं उससे घी बनाता हूं। अगर मैं घी बना रहा हूं तो छाछ मेरे को मिलनी ही मिलनी है, ये एक बाइ प्रोडक्ट है और अगर सिर्फ मैं छाछ बना रहा हूं तो छाछ ही मेरे हिस्से में आनी है। अभी ये जो दही परमात्मा मेरे हिस्से में आया है, अब मैं इससे सिर्फ अगर मांग कर रहा हूं दुनियावी वस्तुओं की, तो ये मेरी कहीं ना कहीं नादानी है।
साध संगत, संपूर्ण हरदेव वाणी में शब्द आता है कि सतगुरु देह का नाम नहीं है सतगुरु होता ज्ञान है कि मुझे इस देह के पीछे नहीं, इस ज्ञान के पीछे चलना है कि जो ज्ञान सतगुरु ने मुझे बख्शा है, उस ज्ञान को समझना है, कि जिस तरह से सूरज किसी दिशा का मोहताज नहीं होता। वो जिस दिशा से उदय होता है, वो दिशा पूरब होती है ये हमने सबने जाना है। इसी तरह ज्ञान किसी शरीर का मोहताज नहीं होता। जिस शरीर से, जिस घट से ज्ञान उदय होता है, वह शरीर वो घट सतगुरु कहलाता है। चाहे युगों-युगों पहले जो दूसरे पीर, पैगंबर, वलियों ने इस ज्ञान को संसार में बांटा तो हमने उस शरीर को लेकर नहीं चलना है, जो आज के वर्तमान सतगुरु हैं, उनसे इसकी प्राप्ति करनी है, ताकि मेरा ये जीवन और जो परलौकिक जीवन है, वो भी संवर पाए।
साध संगत, कौन जीते हैं युगों-युगों तक ? किसका यहां जिक्र किया जा रहा है ? जो आया है, सो जाएगा, राजा, रंक, फकीर। अगर हर कोई जाने वाला है तो किसकी बात हो रही है, वो युगों-युगों तक जीवित होगा। वो बात हो रही है भगत जनों की, वो भगत प्रहलाद की, वो माता शबरी की, वो संत मीराबाई की, संत कबीर की, कि इन्होंने अपने जीवन में भक्ति को इस तरह से लागू कर दिया कि आज भी उनका नाम लिया जा रहा है। कहां वो बात सतयुग की बात रही हो, कहां वो द्वापर युग की बात हो, चाहे त्रेता युग की, युगों युगों तक उनका नाम लिया जा रहा है, आज भी उनका यशोगान किया जा रहा है हर जगह। कारण सिर्फ यही कि अपने जीवन को परमात्मा से जोड़ लिया, हर क्षण में इसको जोड़ लिया कि जहां देखूं उधर तू ही तू। इस बात को उन्होंने आत्मसात कर लिया कि हर जगह उनको परमात्मा का दीदार हो रहा है और ये संभव है तो सिर्फ और सिर्फ सतगुरु के वचनों पर चलने से। अगर मैंने अपने गुरु के वचनों को अपने जीवन में अपनाया है, अगर उसको अमल रूप में मैंने ढाला है तो ये भक्तों वाली अवस्था मेरी भी बननी है क्योंकि जो भगत बने थे, कोई फरिश्ते ऊपर से आके नहीं बने, वो हम लोगों में से ही बने थे, कि जो ये संगत में बैठे हुए महापुरुष हैं, उन्ही में से ही ऐसे भगत जो आज भी उनका नाम लिया जा रहा है। माता शबरी की झोपड़ी में राम आए, उन्हें नवधा भक्ति का दान दिया और उनका नाम युगों-युगों तक जीवित चिरंजीवियों में जोड़ दिया कि वो शरीर करके तो आज नहीं है, पर आज भी हमारी वाणियों में उनका ज़िक्र है तो यही अवस्था सदा से ही भक्तों की रही है। ज्ञान लेना, ज्ञान समझना और ज्ञान जीना, तीन अलग-अलग अवस्थाएं हैं, जब सतगुरु ने इशारा किया, समझ दी, तो ज्ञान मैंने लिया। जब मैंने उस पे कई बार संतों से चर्चाएँ कीं। उस ज्ञान के लिए मैंने संतों के साथ बैठ के बातें कीं, तो ज्ञान मेरे जीवन में समझ आया और जब गुरु वचनों पे एतबार होता है, गुरु का एतबार होता है, तब ये ज्ञान मन में टिकता है और जैसे ही ज्ञान टिकता है, उसी क्षण ठीक वैसे ही जैसे दिया जलते ही पूरे कमरे से अंधेरा चला गया वो ज्ञान टिकते ही सारे भरम भूलेखे दूर हो जाते हैं।
सत्संग कार्यक्रम में अनेक वक्ताओ ने गीत विचार के माध्यम से भी अपने भाव प्रकट किए।
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